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भारतीय संबिधान से भारत के नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकार

दोस्तों हमारा संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है भारतीय संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक मूल अधिकारों का वर्णन किया गया । मूल अधिकार अर्थात मौलिक अधिकार देश के प्रत्येक नागरिक को प्राप्त अधिकार हैं जो व्यक्ति के चौमुखी विकास अर्थात (बौद्धिक, भौतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक के लिए आवश्यक हैं ! भारतीय संविधान, जो विश्व का सबसे बड़ा लिखित  संविधान है,  संविधान में वर्णित छह मौलिक अधिकारों को संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया था। प्रारंभ में, 7 मौलिक अधिकार थे, लेकिन बाद में 44 वें संवैधानिक संशोधन 1978 में “संपत्ति के अधिकार” को हटा दिया गया। वर्तमान में 6 मौलिक अधिकार हैं |

Fundamental rights

संविधान के भाग 3 को भारत का मैग्नाकार्टा भी कहा जाता है जो सर्वथा उचित है भारतीय संविधान में 1 लंबी एवं विस्तृत सूची है जिसमें न्यायोचित मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है । हमारे देश के लिए सबसे बड़ी बात यह है कि वास्तव में मूल अधिकारों के संबंध में जितना विस्तृत विवरण हमारे संविधान में प्राप्त होता है उतना विश्व के किसी भी देश के संविधान मैं नहीं चाहे वह अमेरिका का संविधान ही क्यों ना हो।

                               और सबसे बड़ी बात हम भारतीयों के लिए यह है संविधान द्वारा किसी भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति के लिए मौलिक अधिकारों के संबंध में गारंटी दी गई है । इसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए समानता सम्मान राष्ट्र हित और राष्ट्रीय एकता को भी समाहित किया गया  है 

                             मूल अधिकारों से तात्पर्य राजनीतिक लोकतंत्र के आदर्शों की उन्नति से है यह अधिकार देश में व्यवस्था बनाए रखने एवं राज्य के कठोर नियमों के खिलाफ नागरिकों की आजादी की सुरक्षा करते हैं।यह विधानमंडल के कानून के क्रियान्वयन पर तानाशाही पर लगाम लगाते हैं यानी कि मर्यादित करते हैं अगर संक्षेप में कहा जाए तो इन के प्रावधानों का उद्देश्य कानून की सरकार बनाना है ना कि व्यक्तियों की ।

मैं आपको बता दूं भारतीय संविधान के भाग 3 को मूल अधिकार का नाम क्यों दिया गया वह इसलिए क्योंकि इन्हीं संविधान द्वारा गारंटी एवं सुरक्षा प्रदान की गई है जो राष्ट्र कानून का मूल सिद्धांत है | 

नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकार

मूल रूप से संविधान ने 6 मूल अधिकार प्रदान किए हैं निम्नलिखित हैं ।

  1.  अनुच्छेद 14 से 18 - समता का अधिकार 
  2. अनुच्छेद 19 से 22 - स्वतंत्रता का अधिकार 
  3. अनुच्छेद 23 से 24 - शोषण के विरुद्ध अधिकार अनुच्छेद 23 से 24
  4. अनुच्छेद 25 से 28 - धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार 
  5. अनुच्छेद 29 से 30 - संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार
  6. अनुच्छेद 32 - संवैधानिक उपचारों का अधिकार 

अनुच्छेद 31 - संपत्ति के अधिकार को 44 वें संविधान संशोधन 1978 में मूल अधिकारों की सूची से हटा दिया गया इससे संविधान के भाग 12 में अनुच्छेद 300 (क) के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया इस तरह फिलहाल 6 मूल अधिकार भारती नागरिकों को प्राप्त हैं।

अब हम भारतीय नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों के बारे में विस्तार से जानेंगे।

1 . समता , अर्थात समानता का अधिकार -

अधिकार भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 में वर्णित है जिसके तहत निर्णय अधिकार भारतीय नागरिकों को प्राप्त है 

  • अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता और विधियों  याने की क़ानून का समान संरक्षण- 

अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह भारत का नागरिक हो या विदेशी हो सब पर यह अधिकार लागू होता है इसके अतिरिक्त व्यक्ति शब्द में विधिक व्यक्ति अर्थात संवैधानिक निगम कंपनियां पंजीकृत समितियां या किसी भी अन्य तरह का विधिक व्यक्ति सम्मिलित है ।

  • अनुच्छेद 15धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध -

(अर्थात राज्य याने की भारत किसी भी व्यक्ति के साथ इन आधारों पर भेदभाव नहीं करेगा ,राज्य के लिए सब बराबर हैं ) अनुच्छेद 15 में यह व्यवस्था दी गई है कि राज्य नागरिकों के प्रति केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या को लेकर विभेद नहीं करेगा। इसमें दो कठोर शब्दों की व्यवस्था -'विभेद' और 'केवल'। 'विभेद' क vec vec 6 प्रति उसके पक्ष में न रहना। 'केवल' शब्द का अभिप्राय है कि कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग किसी के विरुद्ध विपरीत मामला या अन्य आधारों पर मतभेद किया जा सकता ।अनुच्छेद 15 की दूसरी व्यवस्था में कहा गया है की केवल किसी धर्म वंश जाति लिंग जन्म स्थान या निवास  स्थान इनमें से किसी के आधार पर दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजना में प्रवेश या राज्य निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं तालाबों, स्नानघाटों का प्रबंधन शर्त के अधीन नहीं होगा | 

  • अनुच्छेद 16 - सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता - 

अर्थात अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्य के किसी भी पद पर नियुक्ति से सम्बंधित विषयों पर सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी किसी ही नागरिक के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता | केवल किसी धर्म वंश जाति लिंग जन्म स्थान या निवास  स्थान के आधार पर राज्य के किसी भी रोजगार एवं कार्यालय के लिए किसी व्यक्ति को आरोग्य नहीं ठहराया जाएगा लोक नियोजन में , रोजगार में सभी को समता का अवसर प्राप्त है | 

  • अनुच्छेद 17 - अस्पृश्यता का अंत  और इस प्रथा का निषेध- (छुआछूत का अंत )
अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करने की व्यवस्था और किसी भी रूप में इसका आचरण निषिद्ध (अंत) करता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी भी नियोग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि अनुसार दंडनीय होगा। ‘अस्पृश्यता' शब्द को न तो संविधान में और न ही अधिनियम में परिभाषित किया गया है। हालांकि मैसूर उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 17 के मामले में कहा कि शाब्दिक एवं व्याकरणीय समझ से परे इसका प्रयोग ऐतिहासिक है। इसका संदर्भ है कि कुछ वर्गों या कुछ लोगों की उनके जन्म एवं जातियों के आधार पर सामाजिक नियोग्यता। उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 17 तहत यह कहा है कि, निजी व्यक्ति और राज्य का संवैधानिक दायित्व होगा कि इस अधिकार के हनन को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाएं। अनुच्छेद 17 के अनुपालन निवारण अधिनियम, 1955 पारित किया गया। वर्ष 1976 में, अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 में मूलभूत संशोधन किया गया और इसका नया नाम सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955' कर दिया गया तथा इसमें दण्ड उपबंध और सख्त बनाए गए। अधिनियम में अस्पृश्यता के प्रत्येक प्रकार को समाप्त करते हुए अनुच्छेद-17 में दी गयी व्यवस्था को सुनिश्चित किया गया। यह अधिनियम निम्नलिखित को अपराधों को अपराध मानता है: 
  • किसी व्यक्ति को सार्वजनिक पूजा स्थल में प्रवेश से रोकना या कहीं पर पूजा से रोकना। परंपरागत, धार्मिक, दार्शनिक या अन्य आधार पर 'अस्पृश्यता' को न्यायोचित ठहराना । 
  • किसी दुकान, होटल या सार्वजनिक मनोरंजन स्थल में प्रवेश से इंकार करना।
  • अस्पृश्यता के आधार पर अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति की बेइज्जती करना। 'अस्पृश्यता' अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों या छात्रावासों में सार्वजनिक हित के लिए प्रवेश से रोकना
  • प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता को मानना ।
  • किसी व्यक्ति को सामान बिक्री या सेवाएं देने से रोकना।
नागरिक अधिकारों की रक्षा अधिनियम में अस्पृश्यता (छुआछुत) को दंडनीय अपराध घोषित किया गया इसके तहत न्यूनतम 6 महीने का कारावास या 500 रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकता है। जो व्यक्ति इस अधिनियम के तहत दोषी सिद्ध होगा, उसे संसद एवं राज्य विधानमंडल चुनाव के लिए अयोग्य किया जा सकता है।

  • अनुच्छेद 18सैन्य और शैक्षणिक क्षेत्रों को छोड़कर पदवी की समाप्ति- ( उपाधियों का अंत )


अनुच्छेद-18 में उपबन्ध है कि-

  • सेना अथवा विद्या सम्बन्धी उपाधियों के अलावा राज्य अन्य कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।  
  • भारत का कोई नागरिक बिना राष्ट्रपति की आज्ञा के विदेशी राज्य से भी कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा। 
  • कोई विदेशी, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई भी उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
  • राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा। 
  • अनुच्छेद-18 की उपर्युक्त व्यवस्था के बावजूद 1954 से भारत रत्न, पद्म विभूषण, पदम् भूषण और पद्म श्री आदि उपाधियां भारत सरकार द्वारा प्रदान की जाती रहीं। मार्च 1977 में जनता पार्टी की सरकार के गठन के बाद महान्यायवादी ने परामर्श दिया कि ये उपाधियां अनुच्छेद-18 के खण्ड 2 और 3 के शब्दों तथा भावना के अनुरूप नहीं हैं। अत: जुलाई 1977 में संसद द्वारा एक विधेयक पारित कर इन उपाधियों को समाप्त कर दिया गया। 1980 में राजनीतिक स्थिति में पुनः परिवर्तन के साथ संसद के द्वारा एक प्रस्ताव पारित कर पुनः इस प्रकार की उचित ठहराया। न्यायालय के अनुसार इनसे अनुच्छेद-18 का उल्लंघन नहीं होता। साथ ही यह भी कहा कि पुरस्कार उपाधियां प्रदान करना प्रारम्भ कर दिया गया। 1996 में उच्चतम न्यायालय ने इन उपाधियों की संवैधानिक वैधता को उचित ठहराया न्यायालय के अनुसार उनसे अनुच्छेद 18 का उल्लंघन नहीं होता साथ ही यह भी कहा कि पुरस्कार पाने वाले के नाम के प्रत्यय उपसर्ग के रूप में इनका प्रयोग नहीं होना चाहिए

  • अनुच्छेद १९ - स्वतंत्रता का अधिकार - 

छह अधिकारों की रक्षा -

अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को छह अधिकारों की गारंटी देता है -

  •  वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता । बोलने की आजादी 
  • शांतिपूर्वक और निरायुध (बिना  किसी हिंसा के ) सम्मेलन का अधिकार । समूह  या संघ या सहकारी समितियो बनाने का अधिकार |


  • भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का अधिकार । अर्थात सम्पूर्ण भारत में बिना रोक - टोक  घूमने का अधिकार 
  • भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने और बसने का अधिकार । याने की आप भारत के अंदर किसी भी राज्य में निवास कर सकते हैं | 
  • कोई भी वृत्ति, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार 
मूलतः अनुच्छेद 19 में 7 अधिकार थे, लेकिन संपत्ति को खरीदने, अधिग्रहण करने या बेच देने के अधिकार को 1978 में 44वें संशोधन अधिनियम के तहत् समाप्त कर दिया गया। इन छह अधिकारों की रक्षा केवल राज्य के खिलाफ मामले में है न कि किसी निजी मामले में |

  • अनुच्छेद 20 अपराध के लिए दोष सिद्धि के संबंध में संरक्षण-
यह अनुच्छेद किसी भी अभियुक्त या दोषी करार व्यक्ति को चाहे वह नागरिक हो या विदेशी या कंपनी व परिषद हो उसके विरुद्ध मनमाने और अतिरिक्त दंड से संरक्षण प्रदान करता है इस संबंध में तीन व्यवस्थाएं हैं | 
  • पूर्वव्यापी दांडी की विधान को प्रतिसिद्ध  किया जाना
  • दोहरा दंड आदेश या एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार दंड देने का प्रतिषेध  किया जाना 
  • स्वयं को अपराध में फंसाने के विरुद्ध संरक्षण
  • अनुच्छेद 21 प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार -
न्यायालय नें अनुच्छेद 21 के भाग के रूप में निम्नलिखित अधिकारों की घोषणा की है -

  • मानवीय प्रतिष्ठा के साथ जीने का अधिकार। 
  • स्वच्छ पर्यावरण– प्रदूषण रहित जल एवं वायु में जीने का अधिकार एवं हानिकारक उद्योगों के विरूद्ध सुरक्षा 
  • जीवन रक्षा का अधिकार।
  • निजता का अधिकार। 
  • आश्रय का अधिकार।
  • स्वास्थ्य का अधिकार।
  • 14 वर्ष की उम्र तक निःशुल्क शिक्षा का अधिकार |
  • अकेले कारावास में बंद होने के विरुद्ध त्वरित सुनवाई का अधिकार।
  • हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार ।
  • अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध अधिकार।
  • देर से फांसी के विरुद्ध अधिकार ।
  • विदेश यात्रा करने का अधिकार।
  • बंधुआ मजदूरी करने के विरुद्ध अधिकार। 
  • हिरासत में शोषण के विरुद्ध अधिकार ।
  • आपातकालीन चिकित्सा सुविधा का अधिकार। 
  • सरकारी अस्पतालों में समय पर उचित इलाज का अधिकार।
  • राज्य के बाहर न जाने का अधिकार।
  • निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार। 
  • कैदी के लिए जीवन की आवश्यकताओं का अधिकार 
  • महिलाओं के साथ आदर और सम्मानपूर्वक व्यवहार करने का अधिकार।
  • सार्वजनिक फांसी के विरुद्ध अधिकार ।
  • सूचना का अधिकार।
  • प्रतिष्ठा का अधिकार।
  • दोषसिद्धि वाले न्यायालय आदेश अपील का अधिकार।
  • पारिवारिक पेंशन का अधिकार।
  • सामाजिक एवं आर्थिक न्याय एवं सशक्तीकरण का अधिकार।
  • बार केटर्स के विरुद्ध अधिकार।
  • जीवन बीमा पॉलिसी के विनियोग का अधिकार।
  • शयन का अधिकार।
  • शोर प्रदूषण से मुक्ति का अधिकार।
  • धारणीय विकास का अधिकार। 
  • अवसर का अधिकार।
उपर्युक्त निर्णयों का परिणाम यह हुआ अनु. 21 में दिए गए प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अर्थ केवल पशु अत अस्तित्व जीवित रहना नहीं है इसके तहत मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है और जीवन के भेज सभी आयाम हैं जिन से मनुष्य का जीवन सार्थक संपूर्ण और जीन योग बनता है | 

  • अनुच्छेद - 22 निरोध एवं गिरफ्तारी से संरक्षण -
अनुच्छेद 22 में उल्लिखित यह मूल अधिकार, मानवाधिकार से संगति रखता है क्योंकि यह संविधान द्वारा सभी व्यक्तियों को मिला है। यह विधानमंडल की शक्तियों पर मर्यादा आरोपित करता है इसे अनुच्छेद के अन्तर्गत दो प्रकार की गिरफ्तारी का उल्लेख किया गया है- सामान्य दाण्डिक विधि के अधीन तथा निवारक निरोध के अधीन। अनुच्छेद 22 (1) तथा 22 (2) सामान्य दण्ड विधि के अधीन गिरफ्तारी से संबंधित हैं, जो निवारक निरोध को छोड़कर सभी गिरफ्तारियों पर लागू होते हैं चाहे वे किसी भी विधि के अधीन की गई हो। इसके तहत निम्न अधिकार हैं

  • गिरफ्तारी के कारणों को यथाशीघ्र अवगत कराने का अधिकार। 
  • अपने रूचि के विधिवेत्ता से परामर्श करने और प्रतिरक्षा का अधिकार।
  • गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर (यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर) मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने का अधिकार।
  • मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना 24 घंटे से अधिक समय के लिए गिरफ्तार न किए जाने का 
  • ऐसे रक्षोपाय अधिकार शत्रु-अन्यदेशीय को तथा निवारक निरोध का उपबंध करने वाली विधि के अधीन गिरफ्तार या निरूद्ध व्यक्ति को उपलब्ध नहीं होंगे।


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